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कविता

क्यों वह प्रिय आता पार नहीं !

महादेवी वर्मा


क्यों वह प्रिय आता पार नहीं !

शशि के दर्पण देख देख,
मैंने सुलझाए तिमिर-केश;
गूँथे चुन तारक-पारिजात,
अवगुंठन कर किरणें अशेष;

क्यों आज रिझा पाया उसको
मेरा अभिनव शृंगार नहीं ?

स्मित से कर फीके अधर अरुण,
गति के जावक से चरण लाल,
स्वप्नों से गीली पलक आँज,
सीमंत सजा ली अश्रु-माल;

स्पंदन मिस प्रतिपल भेज रही
क्या युग युग से मनुहार नहीं ?

मैं आज चुपा आई चातक,
मैं आज सुला आई कोकिल;
कंटकित मौलश्री हरसिंगार,
रोके हैं अपने श्वास शिथिल !

सोया समीर नीरव जग पर
स्मृतियों का भी मृदु भार नहीं !

रूँधे हैं, सिहरा सा दिगंत,
नत पाटलदल से मृदु बादल;
उस पार रुका आलोक-यान,
इस पार प्राण का कोलाहल !

बेसुध निद्रा है आज बुने -
जाते श्वासों के तार नहीं !

दिन-रात पथिक थक गए लौट,
फिर गए मना कर निमिष हार;
पाथेय मुझे सुधि मधुर एक,
है विरह पंथ सूना अपार !

फिर कौन कह रहा है सूना
अब तक मेरा अभिसार नहीं ?

(सांध्य गीत से)
 


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