क्यों वह प्रिय आता पार नहीं !
शशि के दर्पण देख देख,
मैंने सुलझाए तिमिर-केश;
गूँथे चुन तारक-पारिजात,
अवगुंठन कर किरणें अशेष;
क्यों आज रिझा पाया उसको
मेरा अभिनव शृंगार नहीं ?
स्मित से कर फीके अधर अरुण,
गति के जावक से चरण लाल,
स्वप्नों से गीली पलक आँज,
सीमंत सजा ली अश्रु-माल;
स्पंदन मिस प्रतिपल भेज रही
क्या युग युग से मनुहार नहीं ?
मैं आज चुपा आई चातक,
मैं आज सुला आई कोकिल;
कंटकित मौलश्री हरसिंगार,
रोके हैं अपने श्वास शिथिल !
सोया समीर नीरव जग पर
स्मृतियों का भी मृदु भार नहीं !
रूँधे हैं, सिहरा सा दिगंत,
नत पाटलदल से मृदु बादल;
उस पार रुका आलोक-यान,
इस पार प्राण का कोलाहल !
बेसुध निद्रा है आज बुने -
जाते श्वासों के तार नहीं !
दिन-रात पथिक थक गए लौट,
फिर गए मना कर निमिष हार;
पाथेय मुझे सुधि मधुर एक,
है विरह पंथ सूना अपार !
फिर कौन कह रहा है सूना
अब तक मेरा अभिसार नहीं ?
(सांध्य गीत से)